Description
मनुष्य आज जिस जीवन पद्धति का आदी हो चुका है, वह स्वभाविक रूप से उसे रोगी बनाती है। निरोज जीवन प्रकृति का एक अनुदान है, सृजेता की रीति-नीति का एक अंग है जबकि रोग विकृति का नाम है। उस भोगवादी संस्कृति के विकास ने आज घट-घट में स्थान बना लिया है। हम जो खाते हैं, पीते हैं श्वास लेते हैं, सभी में कहीं न कहीं जहर घुला हुआ है। इसके अतिरिक्त बढ़ते लालच एवं दौड़ती आधुनिकता के तनाव ने मनुष्य को खोखला बना दिया है। जो भी कुछ शरीरगत मनोगत कष्ट आज मानव भुगतता दिखाई दे रहा है। उसके मूल में वह अशक्ति ही है-मनोबल का ह्रास ही है, जो उसकी रचनाधर्मी जीवनचर्या को खंडित करता रहा है। यह अशक्ति सर्वाधिक आज की परिस्थितियों में जन्मे तनाव से (स्ट्रेस से ) हो रही है। प्रायः सभी प्रकार के रोग उससे होते सिद्ध किये जा सकते हैं।
Reviews
There are no reviews yet.